बौद्ध धर्म: गौतम बुद्ध का जीवन, शिक्षाएँ, प्रचार और विकास | Buddhism In Hindi
इस लेख में हम बात करने वाले है विश्व प्रसिद्ध और प्राचीन धर्मों में से एक "बौद्ध धर्म" (Buddhism In Hindi) के बारे में। इस लेख में हम गौतम बौद्ध के जीवन की कहानी (History of Gautam Buddha in Hindi), उनके द्वारा दी गई शिक्षाएँ, बौद्ध धर्म के प्रसार आदि के बारे में पूरे विस्तार से जानेंगे
- बौद्ध धर्म: एक संक्षिप्त परिचय - Buddhism In Hindi
- गौतम बुद्ध का जीवन - History of Gautam Buddha in Hindi
- बौद्ध धर्म की शिक्षाएं - Buddhism In Hindi
- बौद्ध धर्म का दर्शन एवं सिद्धांत - Buddhism Philosophy in Hindi
- बौद्ध धर्म का प्रचार एवं विकास
- 4 बौद्ध संगतियाँ - Buddhist Council or Sangiti in Hindi
- बौद्ध धर्म के प्रमुख संप्रदाय - Buddhism Major Sects
- बौद्ध धर्म की विश्व संस्कृति को देन
बौद्ध धर्म: एक संक्षिप्त परिचय - Buddhism In Hindi
लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व भारत के पूर्वी भाग में महात्मा बुद्ध/गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की थी। गौतम बुद्ध शाक्य गणराज्य के राजा के पुत्र थे। बुद्ध ने राजसी एवं सुखी दांपत्य जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में घोर कष्ट एवं कठिनाइयों का सामना कर ज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने इसका प्रचार किया और उस समय वैदिक धर्म में चल रहे धार्मिक आडंबरों, वर्ण भेद एवं जातिभेद आदि को निरर्थक बताया और दु:खी मानवता को जीवन का सही और सरल मार्ग बतलाया।
गौतम बुद्ध का जीवन - History of Gautam Buddha in Hindi
महात्मा बुध का जन्म 563 ईसवी पूर्व (कुछ विद्वानों के अनुसार 566 ईसवी पूर्व) में शाक्य क्षत्रिय कुल में राजा शुद्धोधन के यहां लुम्बिनी वन में हुआ। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था (इसकी जानकारी अशोक के रुम्मिनदेई अभिलेख से मिलती है।) सिद्धार्थ की माता का नाम महामाया था जो कौशल गणराज्य की राजकुमारी थी। इनकी माता का निधन गौतम के जन्म के 7 दिन बाद ही हो गया था। इनका लालन-पालन इनकी विमाता गौतमी ने किया।
सिद्धार्थ के जन्म के समय ब्राह्मण "कौंडिन्य" एवं तपस्वी कालदेवल ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या महान सन्यासी। इनके पिता ने इनका लालन-पालन राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में किया तथा इन्हें राजकुमारों की अनुरूप शिक्षा दी गई ,परंतु बचपन से ही अत्यधिक संवेदनशील एवं चिंतन स्वभाव के थे। एकांत में बैठकर वे जीवन-मरण, सुख-दुःख आदि समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया करते थे। उन्हें इस प्रकार संसार से विरक्त होते देखकर उनके पिता को गहरी चिंता होने लगी उन्होंने सिद्धार्थ को सांसारिक जीवन में व्यस्त करने का प्रयास किया। 16 वर्ष की आयु में ही इनका विवाह यशोधरा के साथ कर दिया गया। यशोधरा एवं सिद्धार्थ के एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम राहुल रखा।
सिद्धार्थ के पिता ने अपने पुत्र को सांसारिक प्रवृत्तियों में लगाने के लिए प्रत्येक मौसम के अनुकूल अलग-अलग महल बनवा दिए तथा प्रत्येक महल में विभिन्न ऋतु के अनुसार सभी प्रकार के ऐश्वर्य और भोग विलास की सामग्री उपलब्ध करवा दी। वैभव और विलास के बीच भी सिद्धार्थ के मन में जीवन की समस्याओं को लेकर निरंतर द्वंद्व रहता था। 12-13 वर्ष गृहस्थ जीवन में रहने के बाद भी सिद्धार्थ का मन सांसारिक प्रवृत्तियों में नहीं लगा।
एक दिन विहार के लिए जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार एक व्याधि ग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा चतुर्थ बार एक प्रसन्नचित सन्यासी को देखा। मानव को दु:खों में फंसा हुआ देखकर उनका मन खिन्न हो गया। बुढ़ापा, व्याधि तथा मृत्यु जैसी गंभीर सांसारिक समस्याओं ने उनके जीवन का मार्ग बदल दिया और इन समस्याओं के समाधान के लिए अपनी पत्नी एवं पुत्र को सोते हुए छोड़कर 29 वर्ष की आयु में गृह त्याग दिया। इस गृह त्याग को बौद्ध ग्रंथों में 'महाभिनिष्क्रमण' कहा गया है।
ज्ञान की खोज में गौतम बुध एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे। सर्वप्रथम वैशाली के निकट "आलारकलाम" नामक तपस्वी के आश्रम में ज्ञानार्जन के लिए गए जो सांख्य दर्शन के आचार्य थे तथा अपने साधना शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। परंतु वहाँ उनकी ज्ञान पिपासा शांत नहीं हुई इसके बाद वे राजगृह की एक ब्राह्मण "उद्रक रामपुत्र" के पास गए। यहां भी उनको शांति नहीं मिली। यहां से वे उरुवेला (बोधगया) नामक स्थान पर पहुंचे।
यहां उन्हें पांच ब्राह्मण साधक सन्यासी मिले। प्रारंभ उन्होंने कठोर तपस्या की जिससे इनका शरीर जर्जर हो गया। बाद में ऐसी साधना प्रारंभ की जिसकी पद्धति, पहले की अपेक्षा सरल थी, इस पर उनके साथियों से मतभेद हो गए तथा वे उनका साथ छोड़कर सारनाथ चले गए।
6 वर्षों की साधना के पश्चात 35 वर्ष की उम्र में वैशाख पूर्णिमा की रात को पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान (आंतरिक ज्ञान) प्राप्त हुआ। तभी से वे 'बुद्ध' के नाम से विख्यात हुए। उस वृक्ष का नाम बोधिवृक्ष तथा उस स्थान का नाम बोधगया हो गया।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात बुद्ध अपने ज्ञान और विचारों को जनसाधारण तक पहुंचाने के उद्देश्य निकल पड़े और सारनाथ पहुंचे। यहां उन्होंने पांचों ब्राह्मण साथियों को अपने ज्ञान की, धर्म के रूप में दीक्षा दी। यह घटना बौद्ध धर्म के इतिहास में "धर्म चक्र-प्रवर्तन" के नाम से जानी जाती है।
बुद्ध 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे। उन्होंने साधारण बोलचाल की भाषा को अपनाते हुए जाति-पाँति और ऊंच-नीच की भावना से दूर रहते हुए सभी को उपदेश दिए। अंत में 80 वर्ष की आयु में 483 ईसवी पूर्व (कुछ विद्वानों के अनुसार 486 ईसवी पूर्व) मल्ल गणराज्य की राजधानी कुशीनगर में अपना शरीर त्याग दिया। महात्मा बुद्ध की शरीर त्यागने की घटना को बौद्ध इतिहास में "महापरिनिर्वाण" कहा जाता है।
बुद्ध का अंतिम उपदेश था -" हे भिक्षुओं ! तुम आत्मदीप बनकर विचरो। किसी अन्य का सहारा मत ढूंढो। केवल धर्म को अपना दीपक बनाओ। केवल धर्म की शरण में जाओ"।
बौद्ध धर्म की शिक्षाएं - Buddhism In Hindi
महात्मा बौद्ध जगत और जीवन को लेकर चले। उन्होंने जीवन को जैसा है, वैसा ही मानकर व्यवहारिक दृष्टिकोण से इसकी समस्याओं की खोज की। उनका धर्म व्यवहारिक धर्म था जो मनुष्य की उन्नति का साधन था। बौद्ध धर्म जीवन का विषय है और इसी जीवन में "निर्वाण" (मोक्ष) की बात कहता है। वह नितांत बुद्धिवादी है और उसमें अंधविश्वास तथा अन्य परंपराओं के लिए मूल रूप में कोई स्थान नहीं है। इनके धर्म का आधार मानव का कल्याण था।
बौद्ध धर्म के 4 आर्य सत्य
बौद्ध धर्म की आधारशिला उसके चार आर्य सत्य है और उनके अन्य सिद्धांतों का विकास इन 4 आर्य सत्यों पर ही हुआ है। ये चार आर्य सत्य निम्नलिखित है -
1. दुःख
बुद्ध ने संपूर्ण मानवता को दुःखी देखा। उनका कहना था कि जीवन दुःखों तथा कष्टों से परिपूर्ण है जिन्हें हम सुख समझते है वे भी दुःखों से भरे हुए हैं। चारों और दुःख ही दुःख है।
2. दुःख समुदाय
प्रत्येक कार्य का कोई ना कोई कारण होता है, अतः दुःख का भी कोई कारण है। दुःख का कारण अविद्या है।
3. दुःख निरोध
जिस प्रकार संसार में दुःख है और दुःख का कारण है, उसी प्रकार दुःख निरोध भी संभव है। यदि दुःखों के मूल कारण अविद्या का नाश कर दिया जाए तो दुःख भी नष्ट हो जाएगा। दुःख निरोध को ही निर्वाण कहा गया है।
4. दुःख निरोध का मार्ग
कोई भी व्यक्ति बुद्ध द्वारा बताए मार्ग पर चलकर दुःखों पर विजय प्राप्त कर सकता है। दुःखों से मुक्ति का मार्ग "अष्टांगिक मार्ग" कहलाता है। ये आठ अंग निम्नलिखित है -
(ii) सम्यक संकल्प - भोगवाद से मुक्त, दूसरों के साथ पूर्ण मैत्री करना तथा सभी के साथ कल्याण की भावना करना। आर्य मार्ग पर चलने का दृढ़ निश्चय।
(iii) सम्यक वाचा (वाणी) - सत्य परस्पर सद्भाव उत्पन्न करने वाला प्रिय एवं मित भाषण। यह वाणी की पवित्रता और सत्यता है।
(v) सम्यक आजीव - जीवनयापन के लिए ऐसा व्यवसाय करना, जिससे समाज को हानि न पहुंचे अर्थात शुभ एवं सत्य मार्ग से आजीविका चलाना।
(vi) सम्यक व्यायाम (प्रयत्न) - बुरे विचारों को आने से रोकना तथा मन में स्थित सुविचारों को बढ़ाना।
(vii) सम्यक स्मृति - शरीर अपवित्र पदार्थों से बना है। इसका स्मरण, शरीर के सुख-दु:ख वेदनाओं, चित्त का अवलोकन, इंद्रियों के विषय, बंधन तथा उनके नाश के उपायों का ठीक प्रकार से विचार करना सम्यक स्मृति है।
(viii) सम्यक समाधि - चित्त को एकाग्र कर ध्यान का संपादन करना।
मध्यम प्रतिपदा
दुःखों से छुटकारा पाने के लिए महात्मा बुद्ध ने जो अष्टांगिक मार्ग बतलाया है वह न तो अत्यधिक शारीरिक कष्ट व क्लेश से युक्त कठोर तपस्या को उचित मानता है और न ही अत्यधिक सांसारिक भोग विलास को। दोनों की ही अतियाँ दुःख के कारण है। दोनों के बीच का मार्ग 'मध्यम मार्ग' बतलाया है, इसका अनुसरण करना चाहिए।
त्रि रत्न
ये अष्टांगिक मार्ग के अंतर्गत आते हैं। शील, समाधि और प्रज्ञा - ये त्रि रत्न है तथा इन्हें निर्माण प्राप्ति का मार्ग बताया गया है।
पंचशील
अहिंसा, अस्तेय, सत्य, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य ये पंचशील कहलाते हैं। ये नैतिक जीवन के आधार है तथा गृहस्थ जीवन के आधार है गृहस्थ तथा भिक्षुक दोनों के लिए आचरणीय है। इनके अतिरिक्त भिक्षुओं के लिए 5 आचार के नियम और है। इस प्रकार भिक्षुकों के लिए '10 शील' है, जैसे - असमय भोजन, माला धारण, स्वर्ण-रजत आदि व सुखद शैया का त्याग।
बौद्ध धर्म का दर्शन एवं सिद्धांत - Buddhism Philosophy in Hindi
अनात्म एवं अनीश्वरवाद
गौतम बुद्ध ने बताया कि संसार में प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील, अस्थायी और गतिशील है। बौद्ध धर्म में इसे 'अनित्यवाद' या 'क्षणिकवाद' का सिद्धांत का गया है। अतः आत्मा जैसी कोई नित्य वस्तु नहीं है। उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को भी नहीं स्वीकारा था।
कर्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद
बौद्ध धर्म कर्मवाद को मानता है। उनका कहना है कि मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। वे मनुष्यों की समस्त कायिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाओं को कर्म मानते थे। यहीं कर्म सुख-दु:ख के दाता हैं।
पुनर्जन्म के बारे में बौद्ध मत है कि मनुष्य का जीवन उसके कर्मों के अनुसार अच्छा या बुरा होता है। पुनर्जन्म आत्मा का नहीं अपितु अहंकार का होता है। जब मनुष्य की तृष्णाएँ एवं वासनाएँ नष्ट हो जाती है, तब वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है।
कार्य-कारण संबंध
प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है। बौद्ध धर्म का कार्य-कारण का सिद्धांत 'प्रतीत्य-समुत्पाद' के नाम से जाना जाता है। इसका अर्थ है -
प्रतीत्य - अपेक्षा रखकर
समुत्पाद - उत्पत्ति
अतः इसका अर्थ हुआ - 'कारण पर निर्भर रहकर कार्य की उत्पत्ति'।
बौद्ध धर्म के अंतर्गत इस सिद्धांत के 3 सूत्र बताए हैं -
- इसके होने पर यह होता है।
- इसकी न होने पर यह नहीं होता है।
- इसका निरोध होने पर यह निरुद्ध हो जाता है।
इस कार्य-कारण की श्रंखला के 12 क्रम बताए हैं -
- अविद्या
- संस्कार
- विज्ञान (चैतन्य)
- नाम रूप
- षडायतन (पांचों इंद्रियों तथा मन का समूह)
- स्पर्श
- वेदना
- तृष्णा
- उपादान (सांसारिक विषयों में लिपटी रहने की इच्छा)
- भव (शरीर धारण करने की इच्छा)
- जाति (शरीर धारण करना)
- जरा-मरण
इस श्रंखला को "द्वादश निदान" या "भव चक्र" भी कहते हैं। मरण इस चक्र का अंत नहीं है मरने के बाद भी अविद्या और कर्म संस्कार रहते हैं जो नए जन्म का कारण बनते हैं। इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है।
मोक्ष
बौद्ध धर्म में जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण (मोक्ष) है। इसका शाब्दिक अर्थ बुझ जाना या शांत हो जाना है। दु:खों के मूल कारण तृष्णा के बुझ जाने पर निर्वाण की स्थिति आ जाती है। निर्वाण की प्राप्ति पर मनुष्य जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
बौद्ध धर्म का प्रचार एवं विकास
गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रचार योजनाबद्ध तरीके से किया। वे वर्षा ऋतु में विभिन्न नगरों में विश्राम करते तथा शेष ऋतुओं में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूम-घूम कर अपने मत का प्रचार करते। उन्होंने अपने मत के प्रचार के लिए बौद्ध संघ और बौद्ध विहारों की स्थापना की। यही कारण रहा कि गौतम बौद्ध के समय और कालांतर में राजाश्रय के कारण बौद्ध धर्म का प्रचार भारत में ही नहीं अपितु चीन, जापान, श्रीलंका, तिब्बत, इंडोनेशिया, बर्मा, कोरिया, नेपाल, मंचूरिया, सुमात्रा, मलाया, कंबोडिया, वियतनाम आदि देशों में हुआ।
अशोक और कनिष्क ने अपने राज्य का धर्म 'बौद्ध धर्म' घोषित कर दिया। नालंदा बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था। बौद्ध संघ द्वारा उनके मत का अधिक प्रचार-प्रसार हुआ।
4 बौद्ध संगतियाँ - Buddhist Council or Sangiti in Hindi
प्रथम बौद्ध संगीति
प्रथम बौद्ध संगीति बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में आयोजित की गई थी। इस समय मगध का शासक अजातशत्रु था। इस संगीति की अध्यक्षता महाकश्यप ने की तथा बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन किया जिन्हें सुत्त पिटक और विनय पिटक में बांटा गया।
द्वितीय बौद्ध संगति
द्वितीय बौद्ध संगति का आयोजन कालाशोक के शासनकाल में गौतम बुद्ध की मृत्यु के 100 वर्ष बाद 383 ईसवी पूर्व वैशाली में किया गया। इस सभा को बुलाने का कारण बौद्ध भिक्षुओं में आए मतभेदों को दूर करना था। इस बौद्ध संगीति के बाद भिक्षु संघ दो संप्रदायों में बँट गया।
एक परंपरागत नियमों में आस्था रखने वालों का संप्रदाय जिसका नेतृत्व महाकच्चान ने किया, स्थाविर अथवा थेरवादी कहलाये तथा दूसरा जिसका नेतृत्व महाकश्यप कर रहा था, जो परिवर्तन के साथ विनय को स्वीकार करने वालों का संप्रदाय, महासांघिक अथवा सर्वास्तिवादी कहलाए।
तृतीय बौद्ध संगीति
यह महासभा मौर्य शासक अशोक के काल में पाटलिपुत्र में बुलाई गई। इसकी अध्यक्षता मोगलीपुत्ततीस्त ने की। उन्होंने कथावस्तु नामक ग्रंथ का संकलन किया, जो अभिधम्म पिटक का भाग है। जिसमें बौद्ध धर्म के सिद्धांतों की दार्शनिक व्याख्या मिलती है।
चतुर्थ बौद्ध संगीति
यह सभा कुषाण शासक कनिष्क के समय कश्मीर के कुंडलवन में हुई। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की तथा अश्वघोष इसके उपाध्यक्ष थे। इसी समय बौद्ध धर्म हीनयान और महायान दो स्पष्ट एवं स्वतंत्र संप्रदायों में विभाजित हो गया।
बौद्ध धर्म के प्रमुख संप्रदाय - Buddhism Major Sects
- हीनयान
- महायान
- वज्रयान संप्रदाय
- वैभाषिक संप्रदाय
- सौत्रान्तिक संप्रदाय
- माध्यमिक (शून्यवाद) संप्रदाय
- विज्ञानवाद (योगाचार) संप्रदाय
बौद्ध धर्म की विश्व संस्कृति को देन
1. इस धर्म ने सर्वप्रथम विश्व को एक सरल तथा आडंबररहित धर्म प्रदान किया। जिसका अनुसरण अमीर-गरीब सभी कर सकते थे। धर्म के क्षेत्र में अहिंसा एवं सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया। बौद्ध धर्म ने युद्ध विजय की नीति को त्याग कर धम्मविजय की नीति को अपनाया तथा लोक कल्याण का आदर्श समस्त विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया।2. बौद्ध धर्म के उपदेश तथा सिद्धांतों को पाली तथा स्थानीय भाषा में लिपिबद्ध किया गया जिससे स्थानीय भाषाओं का विकास हुआ।
3. बौद्ध संघ के संचालन में जनतंत्र प्रणाली को अपनाया गया था जिसको बाद में राज शासन में भी अपनाया गया।
4. बौद्ध धर्म ने भारत ही नहीं विश्व के अन्य देशों में अहिंसा, शांति, बंधुत्व, सह-अस्तित्व का आदर्श प्रस्तुत किया। इसी कारण भारत का विश्व के देशों पर नैतिक आधिपत्य कायम हुआ।
5. बौद्ध धर्म ने विश्व के लोगों को समानता का आधार प्रदान किया तथा नैतिक स्तर पर ऊँचा उठाने, जनजीवन में सदाचार एवं सच्चचरित्र के विकास को प्रधानता दी।
6. बौद्ध धर्म ने तर्कशास्त्र का विकास किया तथा बौद्ध दर्शन में शून्यवाद तथा विज्ञानवाद की दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ जिसका विश्व के दर्शन में उच्च स्थान है।
इन्हें भी देखें
Post a Comment