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जैन धर्म का इतिहास: महावीर स्वामी की शिक्षाएँ और दर्शन | Jainism in Hindi

इस लेख में जैन धर्म (Jainism in Hindi) के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई हैं। इस लेख में महावीर स्वामी का जीवन परिचय, उनकी शिक्षाएँ,जैन धर्म के सिद्धांत आदि के बारे में बताया गया हैं। 

Jainism in Hindi

Table of Content

जैन धर्म: संक्षिप्त परिचय - Jainism in Hindi

जैन धर्म की अति प्राचीन परंपरा है। जैन धर्म की स्थापना और विकास में योगदान करने वाले महात्माओं को तीर्थकर कहा जाता है। तीर्थकर का अर्थ है (धर्म-तीर्थ की स्थापना) करने वाले। महावीर स्वामी से पहले 23 जैन तीर्थकर हुए।


पहले तीर्थंकर ऋषभदेव का उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद और पुराणों में मिलता है। जैन शब्द संस्कृत के 'जिन' से बना है, जिसका अर्थ है- जीतना, जो इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ले



पार्श्वनाथ

जैन साहित्य के अनुसार पार्श्व नाथ का जन्म महावीर के जन्म से लगभग 250 वर्ष पूर्व आठवीं सदी ईस्वी पूर्व में हुआ। वे काशी के इक्ष्वाकुवंशी राजा अश्वसेन के पुत्र थे। इनकी माता का नाम वामा था। इनका विवाह कुशलस्थल की राजकन्या प्रभावती के साथ हुआ था। 30 वर्ष की उम्र में ये गृह का त्याग कर सत्य की खोज में निकल गये। 83 दिन की घोर तपस्या के बाद सम्मेद पर्वत पर इन्हें केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के बाद 70 वर्ष तक उन्होंने धर्म प्रचार किया और 100 वर्ष की आयु में सम्मेद शिखर पर निर्वाण को प्राप्त हुए।


पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने वालों को निर्ग्रंथ कहा जाता था क्योंकि इस मार्ग पर चलकर सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती थी। पार्श्वनाथ में चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया -  अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह। पार्श्वनाथ का प्रभाव, मिस्र, इरान, अफगानिस्तान, साइबेरिया तक फैला। चीनी यात्री हेन्सांग ने यात्रा में निग्रंथ मुनियों को देखने का उल्लेख किया है।



महावीर स्वामी - Mahaveer Swami Ka Jivan Parichay

महावीर स्वामी 24 वें तीर्थंकर थे। महावीर स्वामी ने जैन धर्म की मौजूदा व्यवस्था में सुधार करके उसे लोकप्रिय बनाया। इसलिए कुछ विद्वान उन्हें जैन सुधारक मानते हैं। महावीर स्वामी का जन्म 599 ईं.पू. (कुछ विद्वानों के अनुसार 1862ईं. पू.) वैशाली के निकट कुण्डलग्राम में ज्ञातृक क्षत्रिय कुल में हुआपिता का नाम सिद्धार्थ व माता का नाम त्रिशला था जो वैशाली के राजा चेटक की बहन थी। इनका पालन-पोषण राजसी वातावरण में बड़े लाड प्यार से हुआ। महावीर स्वामी 30 वर्ष तक परिवार के साथ ही रहे। लेकिन माता-पिता की मृत्यु के बाद अपने बड़े भाई नंदीवर्धन से अनुमति लेकर गृह त्याग दिया। 


प्रारंभ में 13 महीने तक वस्त्र धारण किये बाद में वस्त्रों को भी त्याग दिया। 12 वर्षों तक कठोर तपस्या तथा साधना के पश्चात ऋजुपालिका ग्राम के पास ऋजुपालिका नदी के तट पर साल के वृक्ष के नीचे उन्हें सर्वोच्च ज्ञान (केवल्य) प्राप्त हुआ। इसी कारण इन्हें केवलिन माना। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात अपनी इंद्रियों को जीतने के कारण 'जिन' एवं अपनी साधना में अतुल पराक्रम दिखाने के कारण महावीर कहलाये। 


ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महावीर ने अपने सिद्धांतों का प्रचार किया। सिद्धांतों के प्रचार के लिए वर्ष में 8 महीने भ्रमण करते तथा वर्षा ऋतु के 4 महीने किसी एक स्थान पर चतुर्मास करते (विभिन्न नगरों में विश्राम करते।) 527 ईसवी पूर्व में (कुछ विद्वानों के अनुसार 468 ईसवी पूर्व) में लगभग 72 वर्ष की आयु में राजगृह के पास पावापुरी में 2 दिन तक लगातार प्रवचन और उपवास के साथ शरीर त्याग दिया। उनकी मृत्यु के बाद जैन धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ।



जैन धर्म की शिक्षाएं

जैन धर्म की शिक्षाओं की जानकारी जैन धर्म ग्रंथों "आगम साहित्य" से मिलती है। पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं के लिए 4 व्रतों का विधान किया था - अहिंसा, अस्तेय, सत्य तथा अपरिग्रह महावीर स्वामी ने ब्रह्मचर्य को जोड़कर पंचमहाव्रत धर्म का प्रतिपादन किया


1. अहिंसा

यह जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत है जिसमें सभी प्रकार की हिंसा का निषेध किया गया है। मन, वचन और कर्म से किसी के प्रति अहित की भावना न रखना ही वास्तविक अहिंसा है। लेकिन सांसारिक मनुष्यों के लिए संयमपूर्ण जीवन व्यवहार का निर्देश दिया गया है। अतः मध्यम मार्ग के रूप में गृहस्थों के लिए "स्थूल हिंंसा" का निषेध किया गया है। स्थूल हिंंसा से तात्पर्य है किसी निरपराध प्राणी की हिंंसा नहीं करना।


2. सत्य

महावीर स्वामी ने सत्य वचन पर जोर दिया। उनका कहना था, कि बिना सत्य भाषण के अहिंसा का पालन संभव नहीं है। प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक परिस्थिति में सत्य बोलना चाहिए। हंसी और भय से भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।


3. अस्तेय

इसका अर्थ है - चोरी नहीं करना। इसका व्यापक अर्थ है कि बिना अनुमति के किसी की भी वस्तु को नहीं लेना और न ही वस्तु लेने की इच्छा रखना। बिना गृह स्वामी की आज्ञा के घर में प्रवेश न करें न ही निवास करें। गृह स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु का उपयोग भी नहीं करें।


4.अपरिग्रह

इसका अर्थ है - संग्रह न करना। महावीर स्वामी के अनुसार जो व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करता, वह संसार के पाप-जाल से दूर रहता है सांसारिक वस्तुओं के संग्रह से आसक्ति उत्पन्न होती है। प्रकृति में संसाधन सीमित है अतः परिग्रह का अर्थ दूसरों को वंचित करना। अपनी न्यूनतम आवश्यकता से अधिक का संग्रह प्रकृति की चोरी है।


5. ब्रह्मचर्य

महावीर स्वामी का मानना था कि उपर्युक्त चारों बातों का पालन तब तक नहीं हो सकता जब तक मनुष्य विषय वासनाओं से दूर नहीं रहता। ब्रह्मचार्य पालन का अर्थ है कि शरीर की समस्त वासनाओं का त्याग कर देना, अर्थात इंद्रिय संयम का अभ्यास करना।



आगम ग्रंथ क्या हैं?

महावीर के प्रवचनों को गणधरोंं ने संकलित और उत्तरवर्ती  आचार्यों ने लिपिबद्ध किया जो 'आगम' कहलाये। इनकी ज्ञात संख्या 12 है। शास्त्रीय भाषा में इन्हें 'द्वाद्वशांगी' कहा गया है। ये ग्रंथ जैन दर्शन के मूलाधार है।



जैन धर्म के दर्शन और सिद्धांत - Jainism Philosophy in Hindi

अनेकांतवाद

इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्माक होती है। सामान्य मनुष्य उसके सभी गुणों या पक्षों को पूर्ण रूप से नहीं देख पाता। उदाहरणार्थ हम उतनी वस्तुएं देख सकते हैं जहां तक हमारी दृष्टि जाती है, किंतु पृथ्वी का बहुत बड़ा हिस्सा हमारे लिए अज्ञात है। अंतरिक्ष में जाकर अधिक विस्तृत दृश्य को देख सकते हैं। अतः जितना हमें दिखाई दे रहा है, वह भी सत्य है, यह भाव मनुष्य में उदारता और समन्वय की दृष्टि उत्पन्न करता है। इसे ही 'अनेकांत दृष्टि' कहते हैं। इससे केवल हमारा ही मत सत्य है, इस दुराग्रह का विचार समाप्त होता है। 

यह सिद्धांत सोचने का एक दृष्टिकोण देकर विचारों में समन्वय स्थापित करता है जैसे 'गिलास आधा भरा है' तथा 'गिलास आधा खाली हैं' दोनों ही कथन सत्य है, किंतु इनमें से किसी एक कथन पर विश्वास करना पूर्ण सत्य नहीं है। इस प्रकार विपरीत धर्म एक ही वस्तु में दिखाई देते हैं और प्रत्येक में सत्य का अंश है। यह बताता है कि प्रत्येक व्यक्ति की बात सहानुभूतिपूर्वक सुनी जाए।


स्यादवाद

अनेकांतवाद और स्यादवाद एक ही है, अंतर केवल इतना है कि अनेकांत वस्तु के अनेक धर्म होने की घोषणा करता है, तो स्यादवाद् उसे व्यक्त करने की भाषा है। स्यादवाद् शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है।


स्याद् - किसी अपेक्षा या विशेष दृष्टि से 
वाद - मान्यता का कथन

विज्ञान का सापेक्षवाद का सिद्धांत इसी की पुष्टि करता है। जैसे एक व्यक्ति है उसे देखकर आप कहते हैं, 'ये गुरुजी है किंतु यह वाक्य शिष्य की दृष्टि से है'। परंतु वही व्यक्ति पुत्र की अपेक्षा से पिता, बहन की अपेक्षा से भाई, पत्नी की अपेक्षा से पति, माता की अपेक्षा से पुत्र कहलाएगा। ये सभी उपाधियां सत्य होते हुए भी एकांगी है। इस प्रकार देश और विश्व में समन्वय सौहार्द तथा सामंजस्य उत्पन्न करने के लिए विचार में अनेकांत, वाणी में स्यादवाद तथा व्यवहार में अहिंसा का मार्ग अपनाने की आवश्यकता है।


अनीश्वरवाद

जैन धर्म ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानता है। उसके अनुसार सृष्टि अनादि, अनंत तथा नित्य है।

कर्म और पुनर्जन्म

जैन धर्म पुनर्जन्म और कर्म में विश्वास करता है, जैन धर्म मनुष्य को स्वंय अपना भाग्य विधाता मानता है। इस प्रकार जैन धर्म में कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया गया है। मनुष्य के समस्त सुखों-दुखों का कारण उसके अपने कर्म ही है। मनुष्य के कर्मों के कारण पैदा होने वाली सांसारिक वासनाओं के बंधन से आत्मा का जन्म-मरण चक्र चलता रहता है। कर्मों के फल भोगे बिना जीव की मुक्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है। 


मोक्ष या केवल्य 

जैन धर्म में जीवन का चरम लक्ष्य केवल (मोक्ष) की प्राप्ति ही बताया गया है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए तीन साधन बताए गये हैं - सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक‌‌ चरित्र।


सम्यक ज्ञान

इसका तात्पर्य है कि सही विचार अर्थात सत्य और असत्य का भेद समझ लेना। जैन धर्म ज्ञान के 5 प्रकार बताए गए हैं। मति अर्थात इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान श्रुति अर्थात सुनकर अथवा वर्णन के द्वारा प्राप्त ज्ञान, अवधि ज्ञान अर्थात कहीं रखी हुई, किसी वस्तु का दिव्य ज्ञान। मन: पर्याय अर्थात अन्य व्यक्तियों के भावों और विचारों को जानने का ज्ञान केवल्य अर्थात पूर्ण ज्ञान, जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता।


सम्यक दर्शन

जैन तीर्थकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक दर्शन है इसके 8 अंग बताये गए हैं।  संदेह से दूर रहना, सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग करना, आसक्ति- विसकति से बचना, गलत रास्ते पर नहीं चलना, अंध-विश्वासों से विचलित नहीं होना, सही विश्वासों पर अटल रहना, सभी के लिए समान प्रेम रखना। जैन सिद्धांतों में पूर्ण आस्था तथा विश्वास रखना।


सम्यक चरित्र

जो कुछ भी जाना जा चुका है तथा उसे सही माना जा चुका है उसे कार्य रूप में परिणत करना ही सम्यक चरित्र है। इसके अंतर्गत भिक्षुओं के लिए 5 महाव्रत तथा गृहस्थों के लिए 5 अणुव्रत बताए गए हैं तथा सच्चरित्रता एवं सदाचार पर बल दिया गया है।


संवर और निर्जरा क्या हैं?

जैन धर्म में सम्यक दर्शन, सम्यक‌ ज्ञान और सम्यक चरित्र को त्रिरत्न कहा जाता है। त्रिरत्नों के अनुसरण करने पर कर्मों का जीव की ओर बहाव रुक जाता है जिसे "संवर" कहा जाता है। साधना से संचित कर्म नष्ट होने लगते है इस अवस्था को जैन धर्म में 'निर्जरा' कहा जाता है। जिससे जीव के कर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जाते हैं तब वह केवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति कर लेता है। केवल्य के पश्चात जीव का इस संसार से आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है तथा जीव अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन तथा अनंत वीर्य, अनंत सुख की प्राप्ति कर लेता है जिसे जैन धर्म में 'अनंत चतुष्टय' कहा जाता है।


श्वेताम्बर और दिगंबर क्या हैं?

कालांतर में जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगंबर दो प्रमुख धाराओं में विभक्त हो गया। श्वेत (सफ़ेद) वस्त्र धारण करने वाले श्वेताम्बर जैनपूूर्णत: निर्वस्त्र रहकर साधना करने वाले साधु दिगंबर कहलाते हैं। काल प्रवाह में ये दोनों ही धाराए अनेक उप धाराओं में विभक्त हो गई लेकिन पंच महाव्रतों  की मूल मान्यता सभी धाराओं की एक ही है।


इन्हें भी देखें:


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